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एशिया इकोनॉमिक डायलॉग 2024 में विदेश मंत्री डॉ. एस. जयशंकर की टिप्पणियाँ

फरवरी 29, 2024

डॉ.रघुनाथ माशेलकर,
राजदूत गौतम बंबावले,
विदेश सचिव,
विशिष्ट अतिथिगण,
गणमान्य देवियो, सज्जनो और प्रिय विद्यार्थियों,

आठवें एशिया इकोनॉमिक डायलॉग में अपना संबोधन प्रस्तुत करते हुए मुझे प्रसन्नता है। विगत वर्षों में, मैंने देखा है कि यह डायलॉग जियो-इकोनॉमिक्स पर आधारित एक प्रमुख मंच के रूप में उभरा है।

यह संस्करण हमारी समकालीन 'भू-आर्थिक चुनौतियों' पर समुचित रूप से केंद्रित है। आज, ये मोटे तौर पर तीन श्रेणियों में हैं:

एक चुनौती आपूर्ति-श्रृंखला की है जो वैश्वीकरण युग द्वारा बनाई गई एक विशेष आर्थिक कठोरता से उत्पन्न हुई है। चाहे वह तैयार उत्पाद हों, मध्यवर्ती उत्पाद हों या घटक हों, विश्व जोखिमपूर्ण ढंग से सीमित संख्या में आपूर्तिकर्ताओं पर निर्भर है। निर्यातकों के रूप में भी, उत्पादन केंद्रों ने अपनी खुद की सोर्सिंग श्रृंखलाएं बनाई हैं। अधिक लोचशीलता और विश्वसनीयता कैसे लाई जाए यह आज वैश्विक अर्थव्यवस्था को जोखिम से मुक्त करने की दिशा में केंद्रीय विचार है। हम सभी को अधिक विकल्पों की ज़रूरत है और इस दिशा में काम करना होगा।

दूसरी चुनौती प्रौद्योगिकी की है, जो दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है क्योंकि हमारे दैनिक जीवन के अधिकाधिक पहलुओं के लिए इस पर हमारी निर्भरता बढ़ रही है। डिजिटल युग ने इसे बिल्कुल नया अर्थ दिया है क्योंकि यह बहुत व्यापक है। यह सिर्फ हमारे हित ही नहीं, बल्कि प्राय: हमारे सबसे निजी फैसले और विकल्प भी दांव पर हैं। ऐसा युग अधिक विश्वास और पारदर्शिता की मांग करता है। लेकिन वास्तव में, जहां तक प्रौद्योगिकी प्रदाताओं का संबंध है, हम इसका उलटा होता देख रहे हैं।

तीसरी चुनौती अति-केंद्रितता की चुनौती है जो वैश्वीकरण की प्रकृति से उत्पन्न हुई है। अप्रत्याशितता और अपारदर्शिता ने इसे बढ़ाया है। कोविड के दौर में हमने इसे सबसे तीव्र रूप में देखा। लेकिन समय-समय पर हमने यह भी देखा है कि कब बाजार के प्रभुत्व को हथियार बना लिया जाता है। ग्लोबल साउथ के मामले में, निर्भरता के विस्तार को देखते हुए यह विशेष रूप से गंभीर है।

महत्वपूर्ण और उभरती प्रौद्योगिकियों के विकास पर विचार करते समय ये तीन घटनाएं विशेष रूप से प्रभावशाली रूप में एक साथ आती हैं। और हम सभी को पता है कि यह वास्तव में एआई, ईवी, चिप्स, पर्यावरण अनुकूल और स्वच्छ प्रौद्योगिकियों का युग है। अब हम जिन चीज़ों का सामना कर रहे हैं वह अब तुलनात्मक आर्थिक श्रेष्ठता का मामला नहीं रह गया है, अगर ऐसा कभी था। हम वास्तव में वैश्विक व्यवस्था के भविष्य के बारे में बात कर रहे हैं।

इसके समाधान कहाँ हैं? इसका कोई सरल उत्तर नहीं हैं, न ही वास्तव में इनकी संख्या सीमित है। अधिक सुरक्षित, संरक्षित और सहयोगी विश्व बनाने के लिए, हमें स्पष्ट रूप से अधिकाधिक अंतर्राष्ट्रीय सहयोग की ज़रूरत होगी। एकतरफा मांगों, आर्थिक वर्चस्व या प्रौद्योगिकी संबंधी दावों को कम करने में केवल इसी से मदद मिल सकती है। भारत के लिए, इसका अर्थ उन क्षेत्रों के व्यापक मोर्चे पर आगे बढ़ने से जुड़ा है जो व्यापक राष्ट्रीय शक्ति में योगदान करते हों। इसके लिए हमारे कौशल आधार के व्यापक उन्नयन की ज़रूरत होगी। एक ऐसा परिवेश बनाना समय की मांग है, जो कौशल और प्रतिभा को बढ़ावा देता हो। इसे व्यापार करने में सरलता और आधुनिक अवसंरचना सुविधाओं से लाभ होगा। लेकिन सबसे बढ़कर, इसके लिए सुदृढ़ विनिर्माण क्षमताओं की मांग पूरी करनी होगी, जो अकेले ही प्रौद्योगिकी विकास के लिए आधार प्रदान कर सकती हैं।

सबसे बड़ी जनसंख्‍या वाले देश के रूप में, जहां इस दशक के अंत तक तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होगी, हमारे लक्ष्य और महत्वाकांक्षाएं दूसरों की सद्भावना से निर्धारित नहीं हो सकते हैं। हमें अमृत काल के दौरान गहन राष्ट्रीय शक्ति का सृजन करना होगा जो एक विकसित अर्थव्यवस्था और एक अग्रणी शक्ति की दिशा में रूपांतरण को आगे बढ़ाएगी।

यह मोदी सरकार का दूरदर्शी नज़रिया है और पिछले दशक के हमारे प्रयासों और कार्यक्रमों का उद्देश्य भी यही है। शायद इसे समझने के लिए पुणे से बेहतर कोई श्रोता नहीं होगा, जिसके पास औद्योगिक विनिर्माण का इतना लंबा रिकॉर्ड है।

मेरे विचार ध्यान से सुनने के लिए मैं आप सबको धन्यवाद देता हूँ और आपके सार्थक विचार-विमर्श की शुभकामना करता हूँ।

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