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विदेश मंत्री की माइंडमाइन मंडेस, सीएनबीसी (21 जुलाई, 2020) पर बातचीत

जुलाई 30, 2020

श्री सुनील कांत मुंजाल: आप सभी का "#MindmineMondays" के एक और एडिशन में स्वागत है। अक्सर कहा जाता है कि कूटनीति बैंकिंग की तरह है। यह आवश्यता पड़ने पर उपयोग करने हेतु सद्भावना के जमा का निर्माण करने जैसा है। आज के हमारे अतिथि राजनयिक से राजनीतिक बने हैं तथा उन्होंने विश्व स्तर पर भारत की स्थिति को सुरक्षित व मजबूत करने हेतु अपने उल्लेखनीय तथा विविध पेशों से बनाई गई सद्भावना का इस्तेमाल किया है। विदेश मंत्री डॉ. एस जयशंकर को इस मंच पर बुलाते हुए मुझे अतंयंत खुशी है और मंत्री के साथ मेरी इस बातचीत में अकादमिक, जाने-माने स्तंभकार, प्रख्यात विदेश नीति विश्लेषक तथा इंस्टीट्यूट ऑफ साउथ एशियन स्टडीज, नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ सिंगापुर के निदेशक सी. राजमोहन शामिल हैं। राजा इस सत्र को मेरे साथ ही संचालित करेंगे और क्योंकि इस बातचीत के लिए हमारे पास केवल 30 मिनट है। मैं राजा से अनुरोध करता हूं कि वे प्रश्नों को जितना हो सके छोटा रखें और जितना संभव हो सके उतने अधिक सवाल करने की कोशिश करें, क्योंकि वह ऐसे व्यक्ति हैं जो कुछ ही शब्दों में बहुत कुछ कह सकते हैं, और मैंने उन्हें कई मौकों पर ऐसा करते हुए देखा है। तो आज हमारे साथ आने और अपने बहुत व्यस्त कार्यक्रम से समय निकालने के लिए जयशंकर आपका बहुत-बहुत धन्यवाद। यह कार्यक्रमों की एक श्रृंखला है जो हम भारतीय अर्थव्यवस्था, भारतीयों और भारत के वैश्विक संबंधों के महत्व के मुद्दों पर चर्चा करने हेतु सीएनबीसी के साथ साझेदारी में चलाते हैं और यह एक आदर्श मंच है और इसके लिए अतिथियों का आदर्श समूह निर्धारित है। कूटनीति की चार दशकों की यात्रा के बाद दुनिया बदल गई है। आपने एक कैरियर राजनयिक के रूप में शुरुआत की और अब एक मंत्री हैं। आपके लिए, आपके सहयोगियों के साथ अपने संबंधों के लिए, इस बदलाव का क्या मतलब है? यह आपके लिए आसान या कठिन बदलाव रहा है?

डॉ. एस जयशंकर: इससे पहले कि मैं इस सवाल का जवाब दूं, मैं कूटनीति तथा बैंकिंग के बीच एक और सामान्य बिंदु को इंगित करना चाहूंगा, मुझे लगता है कि दोनों ही विश्वास पर चलते हैं।

श्री सुनील कांत मुंजाल:
सही कहा आपने।

डॉ. एस जयशंकर: आप जो पूंजी बनाते हैं, वह उस विश्वास का हिस्सा है जो आप उत्पन्न करते हैं और विश्वसनीयता जो इससे अर्जित होती है, लेकिन इसके अलावा, भले ही यह एक लंबी यात्रा रही हो, लेकिन मैं कहना चाहूंगा कि यह उतनी भी लंबी यात्रा नहीं रही है, क्योंकि हर दिन एक नया दिन होता है, दुनिया हर रोज़ बदलती है। इसलिए, जब आप आपने खाते में अनुभव पक्ष को शामिल करते हैं, तो खाते का उत्साह पक्ष भी बहुत मजबूत रहता है। निश्चित रूप से किसी ऐसे विभाग का मंत्री होने एक बड़ा फायदा है जहां आपने अपना सारा जीवन बिताया हो। तो, आप अपने सभी सहकर्मियों को जाते हैं, मुद्दों के बारे में जानते हैं, लेकिन जैसा कि मैंने कहा, मुझे गलत मत समझिएगा, ऐसा नहीं है कि कहीं न कहीं हम किसी तरह की दिनचर्या से फिसल गए हैं क्योंकि दुनिया आज काफी चुनौतीपूर्ण है, और मोटे तौर पर यह तीन कारणों से चुनौतीपूर्ण है। इन 40 वर्षों में बड़े पैमाने पर पुन: संतुलन हुआ है, यदि आप शीर्ष 20 या शीर्ष 10 अर्थव्यवस्थाओं को देखतो हैं, तो इस दिशा में वास्तव में पिछली दो पीढ़ियों में काफी बदलाव हुआ है। दूसरा, दुनिया आज अधिक वैश्वीकृत दुनिया हो गई है। बहुत अधिक अन्योन्याश्रयता है, बहुत अधिक अंतर्वेधन है। अगर कहीं कुछ भी होता है, चाहे यह कोई महामारी हो, प्रौद्योगिकी हो, आतंकवाद हो, हम आज कहीं अधिक जुड़े हुए हैं और एक-दूसरे से प्रभावित हैं। और, तीसरा प्रभाव का मेट्रिक्स, या कूटनीति की शक्ति है जो बदल गई है। मेरा मतलब है कि आज हम प्रौद्योगिकी के प्रभाव, या विभिन्न प्रकार की कनेक्टिविटी के आर्थिक मापदंडों के बारे में अधिक बात करते हैं, ऐसा नहीं है कि इसमें शामिल लोग या देश बदल गए हैं और उनका सापेक्षिक प्रभाव बदल गया है, मैं कहूंगा कि संपूर्ण परिदृश्य ही बदल गया है।

श्री सुनील कांत मुंजाल: मैं आपसे पूरी तरह सहमत हूँ। भू-राजनीति में अभी मचा हुआ बवाल दुनिया की अर्थव्यवस्थाओं के लिए किसी मुसीबत से कम नहीं है। और, जबकि पहले जैसा शीत युद्ध अब नहीं होता है, तो यह सवाल पूछा जा रहा है, क्या हम एक नए तरीके के युद्ध की ओर बढ़ रहे हैं और महामारी तथा इस तरह की अन्य स्थितियां इसके बढ़ावे दे रही हैं। मैं अब टिप्पणी करने हेतु राजा को बुलाने जा रहा हूं। राजा।

श्री सी. राजमोहन: धन्यवाद। शुक्रिया सुनील, और मैं वहां से शुरु करुंगा, जहां आप अभी रुके थे, शीत युद्ध। मंत्री जी जब आप लगभग 40 साल पहले विदेश सेवा में शामिल हुए थे, तब केवल दो बड़े अग्रणी देश थे, इसलिए हम इसे द्विध्रुवीय दुनिया कहते थे। अब, जैसा की सुनील ने कहा, हम दो बड़े अग्रणी देशों की ओर पुनः लौट रहे हैं, जो कि अमेरिका और चीन हैं। हमारे बीच में, अमेरिका प्रमुख रहा है। तो, अमेरिकी सोवियत युद्ध से अलग दूसरी सबसे महत्वपूर्ण शक्ति के रूप में चीन का उदय कैसे हुआ, चीन दुनिया के लिए कैसे विविधता बना रहा है, क्या आप इसे देखते हैं?

डॉ. एस जयशंकर: मुझे लगता है कि तब द्विध्रुवीयता मौजूद थी, न कि पूर्ण द्विध्रुवीयता। बेशक, हम तब भी गुटनिरपेक्ष थे। और, अब किसी प्रकार की द्विध्रुवीयता है, लेकिन मैं कहूंगा कि हम एक बहुध्रुवीय दुनिया की ओर बढ़ रहे हैं जहां सभी ध्रुव समान आकार के नहीं होंगे। मेरा मतलब है, स्पष्ट रूप से अमेरिका तथा चीन अन्य देशों की तुलना में बहुत अधिक प्रभावशाली होंगे, लेकिन मैं अभी भी कहूंगा, पहले का समय द्विध्रुवीय दुनिया के साथ था, जिसमें कुछ असुविधाजनक बहुध्रुवीय विशेषताएं थीं। यह मजबूत द्विध्रुवी विशेषताओं वाली एक बहुध्रुवीय दुनिया होगी। अन्य बड़े अंतर ध्रुव कौन थे, इसपर निर्भर है। उस समय, अमेरिका तथा सोवियत संघ ध्रुव था। हमारी दोनों में से किसी के साथ भी भूमि सीमा नहीं थी। अगर हम एक अलग युग को देख रहे हैं जहां अमेरिका और चीन - पहले और दूसरे हैं। चीन हमारा निकटतम पड़ोसी है। इसलिए, चीन के उदय ने, पूरी दुनिया को बहुत गहराई से प्रभावित किया है, लेकिन सबसे अधिक यह अपने निकटतम पड़ोसियों को प्रभावित करेगा। इसलिए, मैं उस पुराने सांचे को स्थानांतरित नहीं करूंगा जहां हम अभी हैं।

श्री सी. राजमोहन: आपने चीन के उदय के बारे में बात की। अब अधिकांश देशों का माननाहै कि उन्होंने चीन के विकास की गति तथा इसके पैमाने, और दुनिया पर इसके प्रभाव को कम करके आंका। संयुक्त राज्य अमेरिका की नज़र में शायद उन्हें विश्व व्यापार संगठन में लाना एक गलती थी। हमने उनके साथ काम करते हुए कहा है कि हम वैश्विक मुद्दों पर मिलकर काम कर सकते हैं। दुनिया को बहुध्रुवीय बनाने में हमारी रुचि समान है। लेकिन पिछले कुछ हफ्तों में, मुझे लगता है कि चीन को लेकर भारत की चुनौतियां नाटकीय रूप से बढ़ी हैं। तो क्या हम 90 के दशक की शुरुआत में चीन के उदय के पैमाने को कम नहीं आंक रहे थे?

डॉ. एस जयशंकर: साफ-साफ कहूं तो, मैं कहूंगा कि यहां तुलना की जाती है। आप जानते हैं, 1988 में जब राजीव गांधी चीन गए थे, तो यह 62 में हुए युद्ध के बाद हमारी ओर से किसी प्रधानमंत्री की पहली यात्रा थी। दोनों अर्थव्यवस्थाएं लगभग एक ही आकार की थीं। आज, चीन की अर्थव्यवस्था लगभग साढ़े चार गुना है, भारत के पांच गुना है। इसलिए, मुझे लगता है कि, ऐसा नहीं है कि हम अभी भी स्थिर हैं, हमने विकास किया है और हमने इस अवधि में काफी विकास किया है। वास्तविकता यह है कि चीन ने पिछले 40 वर्षों में बहुत ही प्रभावशाली विकास किया है, चाहे लोग इसके लाभ को देखें या नहीं, मेरे विचार में हमें उस वास्तविकता को पहचानना चाहिए और निश्चित रूप से उन्हें इसके लिए श्रेय देना चाहिए। लेकिन, हमें शायद यह भी देखने की आवश्यकता है कि जब हमने विकास किया, हमने अच्छी तरह से विकास किया, अगर हम अपने अतीत से खुद की तुलना करते थे, अगर हम चीन के साथ तुलना करते हैं, या दक्षिण पूर्व एशिया के साथ तुलना करते हैं या किसी अन्य देश की अर्थव्यवस्थाओं से तुलना करते हैं, तो शायद बहुत सारे क्षेत्र ऐसे थे जहां हम बहुत बेहतर कर सकते थे। मुझे लगता है, वास्तविकता यह है कि हमने औद्योगीकरण तीव्रता से नहीं किया, जिस तरह से कई अन्य एशियाई अर्थव्यवस्थाओं ने निर्माण को बढ़ावा दिया। वास्तविकता यह है कि हमने बहुत बाद में ऐसा किया, हमने चीन के ऐसा करने के पूरे डेढ़ दशक बाद ऐसा किया, और जब हमने ऐसा किया, तो चाहे हम उस तरह के व्यापक सुधार की प्रतिबद्धता करें जो हमने चीन में देखा, न कि केवल आर्थिक सुधार, शासन सुधार, प्रशासनिक सुधार, सामाजिक सुधार। मेरा मतलब है कि उनके एचआर सूचकांकों को देखें, यह हमारी तुलना में काफी बेहतर है। तो, यग वास्तव में "दुनिया का समाविष्टिकरण" था। कई मायनों में, वे दुनिया का लाभ उठाने को लेकर अधिक आक्रामक थे, जितना कि हम थे। इसलिए, मेरा मानना है कि यदि आप यह देखें कि क्या यह हमारी घरेलू क्षमताओं को विकसित कर रहा है, वास्तव में एक तरह से 360 तरीके से सुधार के एजेंडे के साथ चल रहा है, तो दुनिया को यह देखना है कि बहुत ही केंद्रित तरीके से आपकी रुचि को कैसे बढ़ाया जाए। इन सभी विभागों में चीन ने बहुत अच्छा विकास किया है और आज मेरे दिमाग में, वास्तविक अर्थ में, दोनों देशों के बीच की खाई और स्पष्ट रूप से जो रिश्ते के लिए निहितार्थ हैं।

श्री सी. राजामोहन: भारत-चीन की तुलना से, मेरा मतलब है कि चीन से ज्यादा विकास कर लिया है, दुनिया के बारे में उनके सोचने का तरीका भी बदल गया है। हमने भी विकास किया है, तो क्या आपको लगता है कि हमारी स्थापना या कुलीन वर्ग, न केवल विदेश नीति, शायद अभी भी पुराने तरीकों से सोच रहे हैं जो वास्तव में हमारे अपने आकार के अनुरूप नहीं हैं, क्योंकि आखिरकार हम पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था हैं, हमारे पास तीसरा सबसे बड़ा सशस्त्र बल है, पांचवां सबसे बड़ा रक्षा बजट है, लेकिन क्या हमारी सोच हमारे विकास के साथ विकसित हुई है?

डॉ. एस जयशंकर: देखिए, मेरा मानना है कि अभी हम परिवर्तन के दौर से गुज़र रहे हैं। हम परिवर्तन के दौर में हैं। चीन भी परिवर्तन के दौर में है, मेरा मतलब है कि वह हमसे कहीं अधिक उन्नत परिवर्तन में है। मुझे जरूरी नहीं लगता कि दोनों की तुलना करूं। यदि आप मुझसे पूछते हैं, क्योंकि मैं आपके पहले सवाल से शुरू करता हूं, आप 40 साल से इस इमारत में हैं, तो मुझे इसमें बड़ा बदलाव दिखाई देता है, जब मैं लोगों की मानसिकता को देखता हूं, तो आज हमारी महत्वाकांक्षाएं क्या हैं, हमारी क्षमताएं क्या हैं, हम क्या कर रहे हैं। मैं आपको केवल एक उदाहरण देता हूं - हम विभिन्न देशों के साथ विकास साझेदारी कार्यक्रम करते हैं। अब आज हमारी पहुंच कैरिबियन से दक्षिण प्रशांत तक हो गई है। हमारी अफ्रीका के 54 देशों में से 51 देशों में परियोजनाएं हैं। यह 40 साल पहले कल्पना से बाहर होगा, मैं कहूंगा कि शायद दस साल पहले भी ऐसी ही स्थिति थी। इसलिए, ऐसा नहीं है कि हम विकास नहीं कर रहे हैं, और हम अधिक प्रभावशाली, अधिक महत्वाकांक्षी, अधिक आकांक्षा नहीं बन रहे हैं। यह सब हो रहा है। मुद्दा अंततः आपेक्षित तुलना का है, अगर मैं 10 के स्तर से विकास कर रहा हूं, लेकिन आप 50 के स्तर से कर रहे हैं, तो, कहीं न कहीं ऐसा दिखता है। इसलिए हमारे लिए, चुनौतियां वास्तव में आज की हैं, आप वास्तव में अपने देश में कैसे तेजी से विकास करते हैं, और न केवल तेजी से, यह केवल मात्रात्मक मुद्दा नहीं है। क्या हम वास्तव में उन गहरे सुधारों को करते हैं जो शायद हमें पहले कई मामलों में करना चाहिए था, सुनील आप व्यवसाय की दुनिया से हैं, आप पूरी तरह से मुझसे सहमत होंगे कि हमारी विनिर्माण क्षमता वह नहीं होनी चाहिए जो आज है। मेरा मतलब है कि यह बहुत अलग होनी चाहिए थी। हमने नीतिगत विकल्प बनाए हैं और उन प्रथाओं को अपनाया है जो उद्योग को बढ़ावा नहीं दे रही हैं और मैं आपके उद्योग का केवल एक उदाहरण दे रहा हूं। मैं आपको इसका एक और उदाहरण देता हूं, आप कौशल और शिक्षा के स्तर तथा स्वास्थ्य के स्तर को देखते हैं। इसलिए, देश में इस दिशा में बहुत काम किया जाना है। मुझे लगता है, मेरे लिए, जब मैं इस तुलना को देखता हूं, तो यह एक प्रेरणा है, वास्तव में, यह कहते हुए कि हम देश में कैसे बेहतर करते हैं और हम उस बेहतर का बाहर लाभ कैसे उठाते हैं।

श्री सुनील कांत मुंजाल: मेरा सवाल देश को लेकर है। जब भारत के पड़ोसी उसकी ओर देखते हैं, तो हम सुनते हैं, बहुत बार उनमें से कुछ के द्वारा "बड़े भाई", "धमकाने वाले", "अपने आकार और क्षमता का अत्यधिक या गलत तरीके से उपयोग करना" जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया जा रहा है। क्या आपको लगता है कि हमें कुछ ऐसा करना चाहिए जो जिससे हम एक सहज संबंध बनाने में सक्षम हो सकें, क्योंकि हम एक जटिल पड़ोस में रहते हैं?

डॉ. एस जयशंकर: यह सच है, हम एक जटिल पड़ोस में रहते हैं, न कि केवल जटिल पड़ोस में, बल्कि एक ऐसे पड़ोस में जिसके साथ हम बहुत सारे इतिहास साझा करते हैं, और हम बहुत सारे समाजतत्व साझा करते हैं। बहुत बार हमारे प्रत्येक पड़ोसी देशों में ऐसे समुदाय हैं जो एक तरह से सीमा पार कर रहे हैं, विभिन्न प्रकार के बहुत सारे संबंध हैं। इसलिए, लोगों के लिए यह स्वाभाविक है कि वे इस बारे में चिंता करें कि वे कितने सुरक्षित हैं, खासकर एक तरह के पहचान के दृष्टिकोण से। हमें इसका ध्यान रखने की जरूरत है। लेकिन, इस बात को ध्यान में रखते हुए कि इसमें राजनीति भी शामिल है, उनकी राजनीति, हमारी राजनीति, कभी-कभी और राजनीति की परस्पर क्रिया भी हैं। इससे अक्सर, कठिन परिस्थितियां बनती हैं, जिसे मीडिया द्वारा बढ़ाया जा सकता है। इसलिए, हम इन चीजों को दूर नहीं कर सकते। मेरा मतलब है, यह राजनीति है। यह हमारे लिए कोई विशिष्ट नहीं है। हर क्षेत्र की अपनी राजनीति होगी। पूर्वोत्तर एशिया में इसका अपना कोई संस्करण होगा, दक्षिण पूर्व एशिया में इसका अपना कोई संस्करण होगा, अमेरिका में इसका अपना कोई संस्करण होगा और यूरोप में इसका कोई अलग संस्करण होगा। यदि आप पड़ोसियों के सामने कोई बड़ा देश हैं, जो आपसे छोटे हैं, तो वहाँ एक प्राकृतिक गतिशीलता होगी ही। तो, यह मेरा मानना है। एक, हमें हमारे तथा हमारे पड़ोसियों के बीच उन संरचनात्मक संबंधों को बनाने की जरूरत है, ताकि वे राजनीतिक चक्र और किसी भी अस्थिरता का ध्यान रखें जो उनकी राजनीति से उत्पन्न हो सकती है। क्योंकि, कई बार लोग हमारे बारे में ऐसी बातें कहते हैं, जहां हम वास्तव में केवल अपना गुस्सा निकालने और घरेलू मुद्दों को दबाने का एक जरिया भर होते हैं, जो हमारे पड़ोसी देशों में हैं। इसलिए, मैं कहूंगा, समझदारी की बात यह है कि आप यह सुनिश्चित करें कि आपके संरचनात्मक संबंध मजबूत हो, हम जानते हैं कि राजनीति अपनी जगह है, लेकिन अर्थशास्त्र की वास्तविकताओं और सामाजिक संपर्क, लोगों से लोगों के संपर्क जारी रहें। मैं अपने पड़ोसियों के साथ बहुत सहजता से काम करूंगा और उनके साथ होने वाले मतभेदों पर भी। कभी-कभी आप समस्याओं का अनुमान लगाते हैं; कभी-कभी यह महत्वपूर्ण है कि आप किसी के द्वारा अल्पकालिक आकलन हेतु क्या किया जा सकता है, उससे उत्तेजित न हों। ये सभी जीवन की वास्तविकता है, जिसे आप सभी भी जानते हैं।

श्री सी. राजमोहन: जब मैं आपसे किसी बड़े विषय पर वापस बात करता हूं, तो पिछले 40 वर्षों में जो कुछ बदला है, वह है अमेरिका के साथ संबंधों का विस्तार। अमेरिका के साथ रक्षा, अर्थव्यवस्था के विषय में जब मैं सोचता हूं तो लगता है कि यह नाटकीय रूप से बदल गया है। लेकिन, आपकी विदेश नीति के आलोचकों का कहना है कि हम गुटनिरपेक्षता से दूर हो रहे हैं। उनमें से कई गुटनिरपेक्षता को अमेरिका से हमारी दूरी बनाए रखने के पैमाने से मापते हैं। एक समय था जब हमने कहा कि हमें दोनों देशों से दूर रहना चाहिए। लेकिन आज गुटनिरपेक्षता यह परिभाषित करती है कि आप संयुक्त राज्य अमेरिका से कितना दूर हैं? क्या आज भी यह उतना ही प्रासंगिक है जैसा कि हम अमेरिका के साथ संलग्न हैं?

डॉ. एस जयशंकर: राज, गुटनिरपेक्षता एक विशेष युग और एक विशेष शब्द था, मैं कहूंगा कि यह भू-राजनीतिक परिदृश्य था।

श्री सुनील कांत मुंजाल: हाँ, एक विशिष्ट संदर्भ में।

डॉ. एस जयशंकर: किसी भी संदर्भ में। अब, एक मायने में इसके दो पहलू थे। एक था, स्वतंत्र होना। मुझे लगता है कि यह निरंतरता का बहुत कारक है। हम एक बड़े देश हैं, हम एक पुरानी सभ्यता हैं, हमारी महत्वाकांक्षाएं हैं, आकांक्षाएं हैं, हमारी आबादी देखें। और यह स्वाभाविक है, ऐसे में स्वतंत्रता की बहुत मजबूत लकीर होगी, जो इस तथ्य से भी व्युत्पन्न है कि हम एक लंबे स्वतंत्रता संग्राम से बाहर निकले। यह निरंतरता कारक है। अन्य कारक विशेष रूप से 50 और 60 का दशक था जब हम बहुत कमजोर थे। इसमें से कई परेशानी से दूर रहना, किसी से उलझना नहीं, लोग आपको अपने मुद्दों में खींचना चाहते हैं, जो शायद, उन मुद्दों पर उस समय काफी वैध था। लेकिन, आज देखिए, लोग समाधान हेतु हमारे सामने आते हैं। हम जरूरी नहीं कि वे लोग हैं जो अन्य लोगों के मुद्दों में घुसते हैं, लेकिन हम इसमें योगदान देते हैं। आज के बड़े मुद्दे, तेजी से आपको उन सभी में शामिल किया जाना है। देखिए, इस समय के बड़े मुद्दे क्या हैं? मैं कहूंगा की कनेक्टिविटी एक बहुत बड़ा मुद्दा है, समुद्री सुरक्षा एक बड़ा मुद्दा है, आतंकवाद एक बड़ा मुद्दा है और जलवायु परिवर्तन एक बड़ा मुद्दा है। आप यह नहीं कह सकते कि हमें इससे दूर रहना चाहिए और इस सभी में प्रतिस्पर्धा के विकल्प है। और, मेरा तीसरा बिंदु यह है कि अगर हम विकास करना चाहते हैं और मैं भारत-चीन की तुलना पर वापस आता हूं जिसकी चर्चा हमने पहले की थी, अगर हम अंतरराष्ट्रीय स्थिति का लाभ उठाकर आगे बढ़ें, तो, हमें इसके अवसर का लाभ उठाना पड़ेगा। अब, आप यह कहकर अवसरों का फायदा नहीं उठा सकते हैं कि मैं इससे दूर रहूंगा और जब भी मुझे यह उपयोगी लगेगा मैं इसे छोड़ दूंगा। तो, या तो आप खेल में शामिल होते हैं या आप नहीं शामिल होते हैं। तो, सावधानी वाले इस युग में और बहुपक्षवाद पर बहुत अधिक निर्भरता, वह युग हमारे लिए एक निश्चित सीमा तक है। और हमें और अधिक कदम बढ़ाना होगा, हमें और अधिक आश्वस्त होना होगा, हमें अपनी रुचि को बेहतर बनाना होगा, हमें जोखिम उठाने की आवश्यकता है क्योंकि व्यवसाय या बैंकिंग में मौजूद जैसे जोखिमों को उठाए बिना आप आगे नहीं बढ़ सकते। इसलिए ये वे विकल्प हैं जो हमें चुनने हैं और मुझे लगता है कि इससे दूर नहीं रहा जा सकता है।

श्री सी. राजमोहन: देखिए, उन पड़ोसियों में से, जिनके बारे में सुनील ने बात की थी और जिन प्रमुख शक्तियों के बारे में मैं अभी तक बात कर रहा था, उनको मध्य शक्तियां कहा जाता है। ऐसी शक्तियां जो अमेरिका या चीन जितनी बड़ी नहीं, लेकिन वास्तव में शक्तियां थीं। लगता है कि हमने फ्रांस से लेकर हमारे पश्चिम या पूर्व में जापान तक जुड़ने की विशेषता प्राप्त कर ली है। मुझे याद है कि जब सुनील सीआईआई में थे और हमने जापान पर बहुत काम किया था। क्या आपको लगता है कि इन देशों का महत्व आज बढ़ गया है, जिस तरह से आज आप विदेश नीति से निपटने हैं।

डॉ. एस जयशंकर: पहला वे स्वयं से विकसित हुए हैं। आप आज जानते हैं, जापान की उस समय की तुलना में बहुत उच्च अंतर्राष्ट्रीय प्रोफ़ाइल है, जिस समय सुनील और मैं एक साथ जापान पर काम कर रहे थे। या ऑस्ट्रेलिया पहले की तुलना में बहुत अधिक बाहर कदम रख रहा है। और, आप कह सकते हैं कि विभिन्न देशों और इंडोनेशिया या सऊदी अरब के लिए। लेकिन जो कुछ भी हो रहा है, उसके कुछ परिणाम भी हैं, जैसे संयुक्त राज्य अमेरिका का प्रतिसाद, आप जानते हैं कि एक अर्थ में यह बड़े छते जैसे आकार था, और यह पहले से थोड़ा छोटा हो गया है, और यह वास्तव में कई अन्य देशों को बहुत अधिक स्वायत्त नियमों के द्वारा जुड़ने की अनुमति देता है। कई मामलों में, यह हमें अधिक प्रभावित नहीं करता है क्योंकि हम किसी गठबंधन प्रणाली का हिस्सा नहीं थे और हम कभी नहीं होंगे। लेकिन, पहले जो देश अमेरिकी निर्णय पर बहुत अधिक निर्भर थे, आज यह पा रहे हैं कि उन्हें बहुत सारे मुद्दों को वो खुद संभाल सकते हैं। और इसके दूसरे भाग पर फिर से, हम चीन के उदय पर वापस आते हैं। लेकिन जैसा कि आप एक अलग चीन और एक अलग अमेरिका का विचार रखते हैं, दोनों ही बहुत अलग कारणों से है। मेरा मानना है कि इसके लिए और अधिक स्वायत्तता दी गई है, जिन्हें आप विभिन्न प्रकार की मध्य शक्तियां कहते हैं। उनमें से कुछ ऐसे देश हो सकता हैं, जो मध्यम शक्ति वाले हैं, जैसे कि रूस, या फ्रांस, या यूके जैसे देश जो सुरक्षा परिषद में हैं, और जो अभी भी बहुत कुछ संभालते हैं। लेकिन, फिर से अगर आप बहुत सारे जी20 देशों को देखते हैं, तो आप उनमें से कई को बहुत अधिक राजनीतिक भूमिका निभाते हुए देखेंगे और बहुत सी क्षेत्रीय कामों को करते हुए भी। 10 साल पहले की तुलना में कई चीजें आज क्षेत्रीय रूप से अधिक तय की जाती हैं। और, इसका एक बहुत अच्छा उदाहरण, दो अच्छे उदाहरण होंगे, उत्तरी अफ्रीका या खाड़ी, जहां चीजें थोड़ी बहुत घटित हो रही हैं, वहां अतीत की तुलना में बड़ी शक्तियों की प्रत्यक्ष भागीदारी है।

श्री सी. राजमोहन: मेरा एक सवाल था और मुझे यकीन है कि सुनील भी ऐसा ही कुछ पूछना चाहेंगे। अगर आप पिछले 30 वर्षों को देखें, तो हम जलवायु परिवर्तन के मुद्दों के उतने बड़े समर्थक नहीं रहे हैं। आपकी वर्तमान सरकार के तहत, यह चीज़ बदल गई है। आज, भारत जलवायु परिवर्तन का सक्रिय रूप से सामना कर रहा है। लेकिन इसकी दूसरी तरफ, एक समय ऐसा था जब भारत सक्रिय रूप से मुक्त व्यापार समझौतों का समर्थन करता था, लेकिन आज, हम इससे दूर चले गए हैं, हम आरसीईपी से दूर चले गए हैं। मुझे लगता है कि व्यापार के मुद्दे पर, सुनील भी कुछ पूछना चाहेंगे। हम जिस तरह से दुनिया से एक बहुपक्षीय व्यवहार करते हैं, उसे आप कैसे देखते हैं? सुनील क्या आप व्यापार के संबंध में कुछ पूछना चाहते हैं?

श्री सुनील कांत मुंजाल: मुझे लगता है कि आपने बहुत ही प्रासंगिक सवाल पूछा है। मैं वास्तव में इस सवाल में कुछ जोड़ना चाहूंगा, क्योंकि मैंने जापान के संबंध में जयशंकर के साथ काम किया, फिर जब हमने अमेरिका-भारत रणनीतिक संवाद पर साथ काम किया था, जब हमने उनके साथ असैन्य परमाणु कार्यक्रम शुरू किया था, और फिर पाकिस्तान के संबंध में जब हम पसंदीदा राष्ट्र की स्थिति पर ध्यान केंद्रित कर रहे थे, और काम के स्तर के दृष्टिकोण से संबंध को सुलझाने की कोशिश कर रहे थे। ये सभी कम हो गईं हैं, हम वास्तव में उनके साथ काम करने, उनके साथ व्यापार करने, दोनों पक्षों में निवेश करने के तरीके का पता कैसे लगाते हैं और यह हमारे कई संबंधों में हमें अलग करता है। आप क्या सोचते हैं? और क्योंकि भारत में यह ऐसा समय है, जैसा कि आपने खुद कहा, खड़े होना चाहते हैं और शामिल किए जाते हैं, यह ऐसे अनूठे अवसर हैं जिन्हें छोड़ दिया जा रहा है, खासकर चीन और इसकी स्थिति के कारण और जिस तरह से दुनिया इसे देख रही है। आपको क्या लगता है कि अवसर और हमारी क्षमता का लाभ उठाने हेतु भारत को अब कम से कम लघु एवं मध्यम अवधि की स्थिति में ही होना चाहिए?

डॉ. एस जयशंकर: देखिए, मुझे मुफ्त व्यापार समझौतों की खूबियों या कमियों पर उपदेश नहीं देना चाहिए। लेकिन, मैं यह कहना चाहूंगा कि, मेरे हिसाब से एफटीए भी एक मंत्र बन गया है, जैसे कि यह किसी प्रकार का रामबाण हो और एफटीए पर हस्ताक्षर करके, हम दुनिया में आगे बढ़ने जा रहे हैं। वास्तविक रिकॉर्ड देखिए, संख्या देखिए। वास्तविकता यह है कि आरसीईपी देशों के साथ, यदि आप देखते हैं कि आपके व्यापार घाटे 15 साल पहले कहां थे और अब वे कहां हैं। आप इस देश में विनिर्माण की स्थिति को देखें। मैं एक पल के लिए संख्या की बात नहीं करता, मैं बस एक छोटे सा परीक्षण देता हूं। अर्थव्यवस्था की स्थिति देखिए, विनिर्माण की स्थिति देखिए, फिर मेरी ओर देखिए और कहिए, हां इन एफटीए से हमें अच्छा लाभ मिला है। आप ऐसा नहीं कर पाएंगे। क्योंकि वास्तविकता यह है कि, हम अभी सिर्फ वैश्वीकरण में प्रवेश किया, मेरा मतलब है कि हम इसकी खूबियों पर बहस कर सकते हैं, क्योंकि सभी एफटीए समान नहीं हैं, मैं इसे मानता हूं, लेकिन वास्तविकता यह है कि अर्थव्यवस्था, हमारी क्षमताओं के निर्माण के संदर्भ में वो देश के लिए अच्छे नहीं रहे हैं, और मुझे लगता है कि दुनिया से जुड़ने के और भी तरीके हैं जो जरूरी नहीं कि एफटीए केंद्रित हो।

श्री सुनील कांत मुंजाल: मैं बीच में रोकना चाहूंगा। यह वैसा ही सवाल है। उद्योगों द्वारा वास्तव में ऐसा कहा जा रहा है कि एफटीए हमेशा अच्छे नहीं होते हैं, उनपर आँख बंद करके हस्ताक्षर न करें। यदि ऐसा है, तो ऐसा पीटीए करें, जो कि अधिमान्य व्यापार समझौता हो, जहाँ आप नियंत्रण कर सकते हैं और निगरानी कर सकते हैं कि आप कितने उदार रहते हैं और आप कितने समय तक उदार रहते हैं या किसी मद के मामले में प्रतीक्षा करते हैं और यह बड़ी चुनौती रही है।

डॉ. एस जयशंकर: मैं यह भी कहूंगा कि देखिए आज वैश्विक मूल्य श्रृंखलाओं में अवसर हैं, आप वास्तव में देखते हैं कि यह आपके व्यापार सुविधा उपायों को बेहतर बनाने के लिए, इस देश में व्यापार को आकर्षित करने के लिए, केवल एफडीआई के रूप में नहीं, बल्कि इसके हिस्से के रूप में भी वैश्विक श्रृंखला है। और यह एक ऐसा हिस्सा है जिसपर हम वास्तव में काफी कमजोर हैं। इसलिए मेरे हिसाब से हमें इस दिशा में देखने की जरूरत है कि दुनिया को अलग तरीके से कैसे जोड़ा जाए। लेकिन, मैं यहां एक बड़ा मुद्दा उठाऊंगा कि; यह केवल हम पर पूरी तरह निर्भर नहीं है। मेरा ऐसे मुद्दे की बात कर रहा हूं जिसमें अतीत के एफटीए हमारे लिए अच्छे नहीं रहे हैं, लेकिन दुनिया में बहुत सारे देश हैं, मुख्य रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका, लेकिन केवल संयुक्त राज्य अमेरिका की नहीं, जो यही सोच रहे हैं, पुनर्विचार कर रहे हैं, कैसे वे वैश्विक अर्थव्यवस्था के निकट आ सकते हैं। हम बहुत अधिक संरक्षणवादी वैश्विक अर्थव्यवस्था की ओर बढ़ रहे हैं। मुझे लगता है कि कोरोनावायरस महामारी से इन प्रवृत्तियों में तेजी आने वाली है। इसलिए, जहां इस संबंध में कुछ जवाब हम पर निर्भर करते हैं, तो उनमें से बहुत से जवाब अन्य देशों पर भी निर्भर करते हैं।

श्री सुनील कांत मुंजाल: आपका बहुत-बहुत धन्यवाद और आशा है कि एक और #MindmineMondays के लिए हमारी आपसे फिर से मुलाकात होगी।

धन्यवाद।
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